Thursday 31 December 2015

है बेखबर वो ................

है बेखबर वो  ..........

                                   -अभिलाष कुमार पासवान

साल बदल रहे है , लोग तमन्नें बदल रहे है , है कहीं गुमनाम वो 
हम तो बस इंतजार में जी रहे , क्या साल क्या तमन्ना , है मुझसे बेखबर वो 
राहें तो बहुत आएगी आगे भी , होगा ना फिर कभी इंतजार पथ पर 
मेरे आँसू छलक रहे है , है तो पानी मात्र दुनिया के लिए , पर इस मोती से है बेखबर वो
सोने के जेवर से होगी लबरेज , होगी ना दूजा मोती ऐसा 
होगी ना ये इश्क की मोती बेवफा , अपनी नाज की दौलत से है कहीं बेखबर वो 
होगी वो घर विशाल जरूर , है ना वो दिल दिलदार कहीं 
होगी हिमायतों की बारिश जहाँ , अपने उस मकबरे से दूर है बेखबर वो 
उसकी साँसे जिस दिल की धड़कन होगी , उस दिल से है बेखबर वो
साल बदल रहे है , लोग तमन्नें बदल रहे है , है कहीं गुमनाम वो

Wednesday 14 October 2015

जो देख लूँ तस्वीर तुम्हारी ............

जो देख लूँ तस्वीर तुम्हारी ……… 

                                                 -अभिलाष कुमार पासवान 
 
जो  देख  लूँ तस्वीर तुम्हारी सुबह , दिन  बार-बार  देखते निकल जाता 
जो देख लूँ तस्वीर तुम्हारी कोई रात , रात करवटें बदलते निकल जाता 
हूँ  कश्मकश  में  कि  कैसे बताऊँ ये बात दिल की किसी को यहाँ  पर 
जो देख लूँ आभास तुम्हारी कभी , सारा पल  बेकरारी में निकल जाता 

खुदा  भी  होगा  कितना  मगरूर बना  के तुम्हें 
होगी  वो  निगाहें  कितनी मजबूर ना  देख तुम्हें 
है कैसी फितरत तुम्हारी की चाँद छुपा बैठी हो 
वो तड़प भी होगी कितनी मशहूर , पाकर तुम्हें

जो आ जाए ख्याल मेरी तुम्हें , ये जिंदगी सार्थक हो जाएगा 
जो आ जाए ख्याल दिल में , ये इश्क फिर सिद्ध हो जाएगा 
कभी ढूँढ़ते थे ख्याल मुझे , अब ये  निगाहें तुम्हें ढूँढती है 
जो हो जाए दीदार तेरा, अरमानों का इंतजार पूरा हो जाएगा 

बस बनाने  को  एक  तस्वीर , समय  सोचते निकल जाता 
लिखने को एक नगमें , समय तुम्हें याद करते निकल जाता 
करे  क्या  कोई  जब  असर दिल का दिमाग  पर  हावी  हो 
बस एक नाम देने तुम्हें , समय  शब्द  ढूँढ़ते  निकल जाता 


जो देख लूँ तस्वीर तुम्हारी , पल तुम्हें याद करते निकल जाता 
सोचते तुम्हे , महसूस करते , वो शाम बयां करते निकल जाता

Wednesday 12 August 2015

तेरा नाम लिखा ........

तेरा नाम लिखा ........

-अभिलाष कुमार पासवान
नज़र के पन्नों पे मैंने अपना अरमां लिखा 
अपने आँसुओं के कलम से तेरा नाम लिखा 

याद आ गए वो सारे पल गुज़रे  तेरे  सायों में
तेरी जुल्फो की घोर घटाओं में, तेरी  बाँहों के दरिया में
बन पंछी चला फिर उड़ने, बढ़ते पग में ही भ्रम टूटा 
बनते-बिखरते सपने फिर याद आ गए तेरी यादों में 

हूँ तो हीरो अब भी दिल का, बस तेरी नज़रों से ओझल हूँ 
आते है अब भी अफ़साने घूम कर, बस तेरे चेहरे से ओझल हूँ 
पूछता  पता दिल भी रूप बदलकर, शायद तरस है इसे अपनी जां पर 
बस ज़िंदा हूँ कुछ नग्मों के सहारे, बिन तेरे अब तो नग्मों से ओझल हूँ 

मीठे गीत उतर आती है अब भी मन में, ना पा तुझे रूठी जाती है 
अब तो आते सावन भी अक्सर, मगर आँखों में बादल दे जाती है
बरस-बरस बादल नैनों में भादो लाती है, पर किसे यहाँ परवाह दिल का 
दिल भी होता है गिरफ्त कहीं, जब भी एक चेहरे की याद ताज़ा होती है 

कितने रात बिता डाले ख्वाबों में, ख्वाबों में भी परवान लिखा
अपने आँसुओं की कलम से, बस तुझे ही एक पैगाम लिखा

Thursday 6 August 2015

कैसा असर है ये तेरा ...........

कैसा असर है ये तेरा ...........

                        -अभिलाष कुमार पासवान
तन्हा ये ज़िंदगी अब कटती नहीं ,कैसा असर था तेरा 
होकर भी ना हूँ खुद का बिन तेरे , कैसा असर है ये तेरा 

कटती नहीं ये पल ज़िंदगी के , कैसे बताऊँ अब तुझे 
है गुज़ारिश बस इतनी सी , थोड़ा सहारा दे दे मुझे 
होगी ना कोई शिकायत खुदा से, जो होगी तू संग मेरे 
तू ही आरज़ू ,तू ही जुस्तजू , तू ही है ख्वाब मेरे 

हाल बयां करे क्या ये दिल , हुआ है दीवाना तेरा 
बदल गया है तेरा होकर, रहा ना अब ये मेरा 
संभालना अमानत समझ इसे, तोहफा ये मेरा तुमको 
तेरे चेहरे ने दिल का रोग लगाया , भूलूँ कैसे तुमको  

बस रूकती ना जुबां कभी करने तारीफ़ को बयां 
आँखें तरसती है आज भी, करने शायरी को बयां
इस नज़र ने तुमसे खूबसूरत कुछ ना देखा जहाँ में 
कैसा जादू ये तेरा, पाया ना दिल कभी ऐसा जुनून  जहाँ में

Thursday 23 July 2015

बातों को लगा तेरी

बातों को लगा तेरी.……………

                        -अभिलाष कुमार पासवान
बातों  को लगा तेरी लबों  पे अपने घूमता हूँ मैं
माँगता हूँ साँस खुदा  से बस मिलने तक , तेरे इंतज़ार में ज़िंदा हूँ मैं

भूला ना सका अपनी यादों से तुम्हे , गुनहगार हूँ मैं
कल जब था नजरों का शीशा तुम्हारा , उस  पल का कर्ज़दार हूँ मैं
चाह  तो थी मेरी भी आसमां से परे एक नई दुनिया में जाने की
हक़ीकत  न सही ख्वाब तो जिया हूँ  संग तेरे , एहसानमंद हूँ मैं

होके जुदा तुमसे आज , है फिर भी ज़िंदा कहीं मुझमे तू
चाहा यादों को भी मिटाना ,पर साँस  में बस ज़िंदा है तू
आती है घूम घूम कर पहर मुझसे पूछने पता तुम्हारा
तरस है उसे भी मुझपर , जानता है तन्हाई में नाम है तुम्हारा

गुजरेंगे पल वैसे ही, गुज़र रहे जो आज अभी
छोड़ना ना नाराज़गी तू , ये तो  इश्क़ का है सच्चा गहना यहाँ
तड़प होगी पल पल यहाँ, गुजरे पल कसक बन है संग अभी
माँगना ना दुआ कभी मेरे लिए , तेरी नाराज़गी मेरा जूनून है यहांँ

देता है दर्द आँसू  जरूर , मगर खुद्दारी रोने नहीं देती
पुकारता दिल हर बार तुझे , बस जुबां उसे आवाज़ नहीं देती
तरसते है कान सुनने वो आवाज़ , आँखें भी रास्ता तकता है
दिल भी है मज़बूर कहीं , अब कोई इश्क़ की इज़ाज़त नहीं देती  

Thursday 9 July 2015

कहाँ पहुँचा मैं ?

कहाँ  पहुँचा  मैं ?

                                             -अभिलाष कुमार पासवान 
जोड़ता  हूँ  कभी  तजुर्बों  को -
देखने  कि  कहाँ  पहुँचा  मैं ;
दौड़ता , भागता , फिर  वहीँ  पहुँचता  हूँ 
जहाँ  से  मैंने  शुरुआत  किया  था -
नापने  कि  कितनी  दूर  पहुँचा  मैं ;


लौटते  उस  बिंदु  तक  ना  जाने  कितनी  यादें  ताज़ा  होती  है ,
पर  लौटती  ज़िंदगी  में  बस  इन  सबका  एक  दीदार  होता  है ,
चाहता  हूँ  रुक  थोड़ा  सुस्ताना , थोड़ी  उनसे  बातें  करना -
पर  समय  अब  भला  कहाँ  इज़ाज़त  देती  है ;

एक  पल  तो  ऐसा  होता  है  कि  दोनों  कल  सामने  होते  हैं ,
एक  वो  जो  कल  अपने  थे , एक  वो  जिसे  मैंने  देखा  नहीं  है ,
बीच  मँझधार  में  फँसा  मैं   सोचता  रहता  हूँ  करूँ  क्या -
बस  यहीं  कुछ  पल  के  लिए  ज़िंदगी  स्थिर  होता  है ;


इस  स्थिरता  में  देखता  हूँ  मुड़कर -
अपनों  से  कितना  दूर  हूँ  मैं ;
बस  जानने , बस  इतना  सा -
कि  खुद  से  कितना  दूर  हूँ  मैं ,
जोड़ता  हूँ  कभी  तजुर्बों  को -
 बस देखने  कि  कहाँ  पहुँचा  मैं ;
कहाँ  पहुँचा  मैं ?



Thursday 25 June 2015

एक याद बनाता हूँ ...........

एक याद बनाता हूँ  ………………

                          -अभिलाष कुमार पासवान 

जब जोड़ते छोटे-छोटे लम्हों को एक याद बनाता हूँ 
फिर जीता हूँ एक पल में ,फिर उस पल को याद बनाता हूँ 
चलती चली जा रही ज़िन्दगी जब दूर कहीं मुझसे यहाँ 
कभी पास बुलाता , कभी पास जाता , उन लम्हों का शुक्रगुजार होता हूँ 
जब जोड़ते छोटे-छोटे लम्हों को एक याद बनाता हूँ 


भागते-भागते जब थक जाता ,हार तन से जो मन उदास हो जाता 
दुःखी मन में दिल के उद्गार से हिम्मत की दो लफ़्ज़े लाता हूँ 
जब जोड़ते छोटे-छोटे लम्हों को एक याद बनाता हूँ 


जब कभी हारते रो नहीं सकता , पीछे जा एक याद लाता हूँ 
वही जोश , जुनुन कल की ,खुद में ला , खुद में एक विश्वास बोता  हूँ 
एक बार जो छू जाए विश्वास मन को, फिर हार कहाँ और जीत कहाँ 
मन का जीता मैं , बस उस पल को जीत, उम्मीद संग लाता हूँ 
जब जोड़ते छोटे-छोटे लम्हों को एक याद बनाता हूँ 


सुख , दुःख, ईष्या, लालच से परे ,जो चंद पलों के लिए मन कहीं खो जाता 
दौड़ती-भागती ज़िंदगी में हो संग उसके,संग खुद के होना चाहता हूँ 
जब जोड़ते छोटे-छोटे लम्हों को एक याद बनाता हूँ 


Monday 22 June 2015

तू इतनी खूबसूरत है .............

तू इतनी खूबसूरत है.......... 

                               -अभिलाष कुमार पासवान 


तू इतनी खूबसूरत है , पता था नहीं मुझको 
दीदार करता रहा तेरा , पर देखा ही नहीं तुझको 

थकी ना ये आँखें ,ना भरा कभी ये मन 
खुली आँखें जब भी मेरी , करता रहा इंतज़ार हरदम 
कायनात से चुरा कर जो लाया तुझे , होने हमदम 
दिल्लगी ऐसी थी कि ,बस देख चेहरा पढ़ा तेरा मन 

 कैसा है ये इश्क़ , कैसा है जुनुन ,मैं तो बस साकी तेरा 
पीड़ पराया कर तेरा ,धड़कन में जो बसे वो साँस हूँ तेरा 
परवाना हूँ या अपना ,अब तू ही बता, पूछ दिल से 
आऊँगा नज़र तेरे हर फसाने में जो देखेगी तू दिल से 

लुटाता रहूँ अपनी अरमानों की झरी ,इज़ाज़त दे मुझे 
बस दो पल फ़ना होने तक ,इश्क़ करने की इज़ाज़त दे मुझे 
मैं तो हूँ बस खड़ा यहाँ ,इश्क़ की इबादत है तू 
पूछ एक बार दिल से ,मेरी होकर मुझमे खोने आ जा तू 

बोले जो तू फलक के चाँद को अपना बना लूँ जमीं से 
उस दरिया में उसकी परछाईं उतार  दूँ , बस मुस्करा दे तू 
रूठे जो दुनिया रूठ जाने दे ,पर होना ना नज़र से ओझल तू 
ज़िन्दगी तूझे  सौंप दी है , कर ले जरा अब ऐतबार दिल से 

तू इतनी खूबसूरत है , पता था नहीं मुझको 
तेरी झुकी नज़रों का कायल हूँ ,दीदार करा दे मुझको 


Wednesday 17 June 2015

और कितना याद आओगी तुम !

और कितना याद आओगी तुम !

                      -अभिलाष कुमार पासवान 

दिन ढ़ले ,शाम ढ़ले , रातें भी यूँ ही कट जाती है 
कटता न बस वो पल जिसमे तेरी याद आती है 
कमबख्त देती वो दर्द इतना , कि  असर में खुद को ही भूल जाते 
कैसा असर है ये तेरा मुझपर , कैसे अनभिज्ञ हो तुम? 
और कितना याद आओगी तुम !

याद आतें  है वो पल ,जिसमें संग तू मेरी थी 
तड़पाते  है वो पल जिसमें आज के ख्वाब सजा रखी थी
तड़प भी ये ऐसी है मानो मौत से जुदा हो ख़फ़ा हो बैठी है  
देती ना तकलीफ जिस्म को , शायद ये दिल गवां बैठी है 
भूलातें तो हैं गैरों को यहाँ , पर अपनों को भुला बैठी हो तुम 
और कितना याद आओगी तुम !

क्या चलती रहेगी ज़िन्दगी यूँ ही इंतज़ार में  तेरे 
क्या बहती रहेगी अरमानों की धारा आँसूं बनकर ,जो पूरे  न हो सकता बिन तेरे 
दिया है कुदरत दिल ये कैसा मुझको जो रहा न है अब खुद मेरा होकर 
अमानत बना तुझे सौंप दिया था ,क्या उसे भूल बैठी हो तुम 
और कितना याद आओगी तुम !

समझा लेता हूँ सबको ,पर न समझा पाता नादान  दिल को 
लूटा चुका  हो जो आबरू इश्क़ में तेरे ,खो  बैठा है खुद को 
पूछते देर न लगती , पूछते कभी हिचकिचाता नहीं 
हमेशा बड़ा ही सादगी के साथ है  पूछ  बैठता -
और कितना याद आओगी तुम !

Tuesday 16 June 2015

तुझे और मोहब्बत करूँगा मैं ……

तुझे  और मोहब्बत  करूँगा मैं …… 

               -अभिलाष  कुमार पासवान 


 तेरी  बेपरवाहियाँ  , मेरी गुस्ताखियाँ 
ना  भूलूँगा  मैं ;
भागना दूर तेरा  मुझसे , फिर मेरे ही पास आना 
ना भूलूँगा मैं ;
शिकवे भी मुझसे , शिकायत भी मुझसे 
तेरे हर इल्ज़ाम को सहूँगा मैं ;
तुझे  और मोहब्बत  करूँगा मैं ……


तेरा चोरी छुपे मुझे देखना , दोस्तों से पूछना 
सामने आने पर तेरी धड़कनों का तेज़ होना ;
अब उसे महसूस करूँगा मैं ;
तुझे  और मोहब्बत  करूँगा मैं ……


जाते हुए तेरा पलट कर देखना , तेरा मुस्कुराना 
ना भूलूँगा मैं ;
देख मुझे तेरा पागल होना , बचकानी हरकतों से बाज़ न आना 
ना भूलूँगा मैं ;
प्यार था मुझसे , पर इज़हार का डर था 
तेरी डर से मोहब्बत करूँगा मैं ;
तुझे  और मोहब्बत  करूँगा मैं ……


तेरा  हवा से बातें करना , पंछियों के तरह चहकना 
गंभीरता को छोड़ ,तेरा बच्चों की तरह जीना ;
तेरे उस पागलपन को दोहराहूँगा मैं ;
तुझे  और मोहब्बत  करूँगा मैं ……


रूठे को मनाने की कला सीखाना  ,तवज़्ज़ों  को पढ़ना सीखाना 
दिल और दिमाग की उलझन से परे जीना , खुद से प्यार करना सीखाना 
तेरी बातों -बातों पर इठलाना , फिर मुस्कुराना ;
ना भूलूँगा कभी , ना भूलूँगा तुझे मैं ;
तुझे  और मोहब्बत  करूँगा मैं ……


Saturday 23 May 2015


वक्त  पे कभी  रूककर ................... 

                          -अभिलाष कुमार पासवान 


होती   कहाँ  अब  वक्त  वो , जहाँ  खुद  की  कोई  सुनें ;
वक्त  पे कभी  रूककर , दिल  की  बात  तो  सुन  लो !!!

रही  भागती   ज़िंदगी  , रहे  भागते  हम , बन  न  पाया  कभी  साथी  खुद  का ;
शुकुन  मिला , वीरानियाँ  मिली , मिला  न  यहाँ  तो  सिर्फ  मेरा  मन  खुद  का ;
किया  एतबार  वक्त  से , संग  चल  उसके , हो  उसके ;
आयी   तन्हाईयाँ  जब  भी ,  एक  आवाज  सुना --
वक्त  पे कभी  रूककर , दिल  की  बात  तो  सुन  लो !!!

रहा  बैचेन  सदा , सुनने  को  उनकी  बातें , पर  खुद  से  बातें  कर  न  पाया ;
जो  रहा  सदा  मुझमे , सदा  से  होकर , भागते  उसे  ही  यहाँ  पहचान  न  पाया ;
एक  ही  वो , एक  ही  है  हम , एक ही  है  पहचान  हमारी ;
मगर  रहा  सदा  अनभिज्ञ , पर हमेशा  एक  आवाज़  सुना --
वक्त  पे कभी  रूककर , दिल  की  बात  तो  सुन  लो !!!

मिला  ज्ञान  जग  का  मुझको  भी , मिला  ज्ञान  भक्ति  मार्ग  का , प्रेम  मार्ग  का ;
मिला  न  सिर्फ  तो  कोई  ज्ञाता , जो  दे  सकता  हो  ज्ञान  खुद  को  पाने  का  ;
सब  कुछ  पा   लेने  पर  भी , जो  पा  न  पाया  खुद  को ;
है  अधूरा  सदा  जग  में  वो ,  फिर  एक  आवाज  सुना --
वक्त  पे कभी  रूककर , दिल  की  बात  तो  सुन  लो !!!




Thursday 21 May 2015

"मुझसे प्रगति का मतलब न पूछो "

"मुझसे   प्रगति  का  मतलब  न  पूछो "

                                       -अभिलाष  कुमार  पासवान 

अधरो  में  लटका  खुद  को , बैठा  रहता  जो  कुछ  ढूँढने   को ;
कभी  तन्हाईयाँ  बुलाती , कभी वीरानियाँ  पुकारती , कभी  हवा  के झोँके  छेड़ती ;
मनमैली  सोच  के  द्रव्य  से  घिरा , जब  पुचकारता  कोई  मन  को ;
अशांत  मन  तनिक  शांति  चाहता,  पर वज़ह  हर  बार  है इसे  यहाँ  छेड़ती ;

कभी  पूछते  दिल  से , कभी  सुनते  दिमाग की , जब ठिठक सा  जाता ;
जब  कोई  अपना  ना कोई  पराया  होता ;
भँवर  के  उस  जाल  में   फँसते , जो  उस  अलौकिक  द्वार की तरफ जाता ;
शांत  चित्त  सहित  न  कोई  मोह  न  कोई  माया  होता ;

ढूँढ़ते  खुद  का  अस्तित्व  जग में , ढूँढ़ते  उन  असंख्य  सवालोँ  के  उत्तर  को ;
जब  खुद के  वजूद  का मतलब  जानने  को  होता , फिर लब्जें खुद को  छेड़ती ;
उत्तर , उत्तम उत्तर , अति  उत्तम उत्तर,  जब इन  शब्दोँ  से  पड़े  पाता  खुद  को ;
पथ  प्रदर्शक  बन खुद  का  जब खुद  संग  आगे  बढ़ता , फिर  मेरी  ही  सोच छेड़ती ;

पूछ  बैठता  दिमाग  जब  भी  मेरी  प्रगति का  मतलब,
दिल  चुपके  से  बस  यही  कहता --------
"मुझसे   प्रगति  का  मतलब  न  पूछो "!!!


Wednesday 1 April 2015

उनकी  यादोँ   का  सैलाब  .................

                               -अभिलाष कुमार पासवान 

ये  भूली -बिसरी  यादें , यहाँ  भीड़  में   मुझे  तन्हाई  दे जाता  है ,
कमबख्त  पल  वो , जो कल  अपने  थे , मुझसे  दगा  कर जाता  है ;
वो  विश्वास  की  एक डोर , कल की ,  आज दर्द  देने  को  बड़ा  आतुर  है ,
मेरे  चहकते  मन  को  भी  वो  एहसास , हर  पल  स्थिर  कर  जाता  है ; 
उनकी  यादोँ   का  सैलाब  आज  फिर -फिर  रुला  जाता  है ................. 

क्या  फ़ितरत  थी  उनकी , क्या  फ़ितरत  मेरी  है , सोच ये  बेजुबां  सा  हूँ  ,
किसे  सुनाऊँ  अपनी  यारी  कुर्बान  कर  उसपे , आज  खुद  कश्मकश  में  हूँ ;
किसे  बताऊँ  ये  हाल  दिल  का , पल  का  ये  ताना अब  बर्दाश्त  न  होता  है ,
उन्हें  तो  अपना  समझा था , पर  कहते हैं  यहाँ  तो  अपना  ही  पराया   होता  है ;
और , उनकी  यादोँ   का  सैलाब  आज  फिर -फिर  रुला  जाता  है .................

गुजरते  रातोँ   में , नई  सुबह  की  उम्मीद  के  संग,  रात  तो  कट  जाता  है ,
अहले  सुबह  दस्तक  पड़ते  ही  उन  यादोँ  का , मन  फिर  उदास  सा  हो जाता  है ;
ये  रिश्ते  दिल  से  उभरे  थे, और आज दिल को ही  नासूर करने  को  आतुर  है ,
पता  नहीं  था  मुझको  यहाँ , कि  दिल  का  रिश्ता  भी  दगा  कर  जाता  है ;
और , उनकी  यादोँ   का  सैलाब  आज  फिर -फिर  रुला  जाता  है .................

यूँ  तो  उनकी  ख़ुशी  के  लिए , ज़िंदगी  अपनी  उनके पास  छोड़  आया  हूँ ,
प्रेरणा  थी  वो  मेरी , अपनी  मोहब्बत  को  खुदा  के  भरोसे  छोड़  आया  हूँ ;
दर्द  जितने  भी  हो  दिल  में ,  जीने  के  लिए  यहाँ  मुस्कराना  तो पड़ता  है ,
बस  एक वजह  को  ज़िंदा  रखने  को , उम्मीद -ए -वफ़ा  लगाना तो  पड़ता  है ;
पर , उनकी  यादोँ   का  सैलाब  आज  फिर -फिर  रुला  जाता  है .................

सुना  है  किसी की मोहब्बत  को पाने में , एक  ज़िंदगी  छोटा  पड़  जाता है ,
गर  मोहब्बत  नाम -ए -इंतज़ार  हो तो , ज़िंदगी  फिर   कट ही  जाता है ;
ज़िंदगी   के जिस पहलू  को जोड़ता  आया  मैं  , वही आज खुद  टूटने  को  आतुर है ;
ये  ज़िंदगी , ये  एहसास , एक बार  ही मिली है , सोच दिल को पुनः उन्माद मिल जाता है ;
पर ,उनकी  यादोँ   का  सैलाब  आज  फिर -फिर  रुला  जाता  है .................

Saturday 31 January 2015

क्यूँ  कोई उदास  होता है ……… 

-अभिलाष कुमार पासवान

कभी  नाराज़गी,  कभी  प्यार , हर रिश्ते  में  ये  होता  है ,
जो  ना  हो  तकरार कभी , फिर वो रिश्ता कहाँ  सच्चा  होता है ;
होता  गुस्सा  कोई  करीबी  जब हमसे , ये दिल  पूछता  फिर खुद से ,
चार दिन  की है  ये ज़िंदगानी  जब , फिर क्यूँ  कोई उदास  होता है ……… 

आज है संग , एक  उद्देश्य  के संग , फिर  कहाँ  संग  रहना  है ,
कुछ  पल  के बाद तो  फिर एक - दूजे  के यादों में  बस जाना है ;
हम  गिले -शिकवे  भी  करते  है , जानते  हुए  भी  कि  कल का पता नहीं ,
भूल जाते  हैं  बस इतना  कि  हमें  इन्हीं  पलों  से  मोहब्बत करना होता हैं ;
चार दिन  की है  ये ज़िंदगानी  जब , फिर क्यूँ  कोई उदास  होता है ……… 

छू  जाती  है  दिल  को  जब  कोई  बात, मुद्दा  वही  बन जाता  है ,
आप  चाहो या  ना  चाहो , आगे  के  रिश्ते  का  वज़ूद  बन जाता है ;
समझते  कभी  एक- दूजे को , एक गुमनाम  ज़िन्दगी  यहाँ बसर कर जाती ,
बचे  पलों  को  यादगार  बनाने में , ये लम्हा  छोटा  होता  चला जाता  है ;
चार दिन  की है  ये ज़िंदगानी  जब , फिर क्यूँ  कोई उदास  होता है ……… 

बस  कुछ  मर्यादा  होता है अपना , क्यूँ  ना  वो  समझ पाता  है ,
ज़िन्दगी  के  इस  पहर  में , छोटी सी बातों  को भी  समझना जरूरी  होता है ;
कुछ  पल  के  है  संगिनी  जब , आन -अना  की  दीवार  क्यों ,
आज  की  उलझन  कल  की  दूरी , बस  तथ्योँ  को समझना  होता   है ;
चार दिन  की है  ये ज़िंदगानी  जब , फिर क्यूँ  कोई उदास  होता है ……… 

पुनः  मिलन  का  आसार  नहीं , सोच  जब  यादों  को  सहेजने  बैठता  हूँ ,
पूछ  बैठता  है  दिल  फिर  से  की -
चार दिन  की है  ये ज़िंदगानी  जब , फिर क्यूँ  कोई उदास  होता है ………  
 

Sunday 4 January 2015

वो एक शब्द ………

                                -अभिलाष  कुमार  पासवान 

लिखते  हैं   जब  शब्द  कभी  , कभी  शब्द  मुझे  बयां  कर  जाता  है ,
दिल  में  छुपी हसरतो  को , कोरे  कागज़  पर  फिर  गढ़  जाता है ;

ये  दुनिया  वीरां  पर  थी  जब , तब से  'वो  एक  शब्द ' ख्याल  में  आया ,
प्यासी  धरती  और  बादल  की  बूँद  को  'वो  एक  शब्द ' फिर  बयां  कर आया ;
दुनिया  की  है  कोई  तस्वीर  नहीं अपनी , बस  हर  नज़र  बयां  करती  अपने  लिए ,
जितनी  नज़रे भी बयां  करने  की   तकलीफ  की , 'वो  एक  शब्द ' उस  नज़र को  बयां  कर आया ;
लिखते  हैं   जब  शब्द  कभी................. 

ये  सागर  धरा पर , पानी  रखे  हुए  भी  प्यासी थी , बस  सुनने  को  'वो  एक  शब्द ',
मरुस्थल  में  पेड़ो  को  जीवन  मिल  जाए , जो  उनके कानोँ  में  कह दे  कोई  'वो  एक  शब्द ';
बन  गयी  है  ये  दुनिया  आज  इतनी  रंगीली  कि  सादगी  इसकी  है  कहीँ  गुम  गयी ,
सरलता  और  सादगी  भरा , जीवन  के  पथ  पर  अग्रसर  हो  जाए  जो  समझ  जाए  'वो  एक  शब्द ';
लिखते  हैं   जब  शब्द  कभी................. 

जब  धरती  के  ही  आँसू  से  समुंद्र भर  रहा  था , तब  से  'वो  एक  शब्द '  ख्याल  में आया ,
आँसू  थे  जब दिल  के  अपने , तब  बयां  करने  'वो  एक  शब्द ' जुबां  पे  आया ;
होती  है  पहचान  अदभुत  कितनी  कि  जिस्म  का  दर्द दिखता , दिखता  न  दिलोँ  का ,
दिल  के  हर  दर्द , हर  तन्हाई  को  समझाने  को  'वो  एक  शब्द ' रूप बदल-बदल  कर आया ;
लिखते  हैं   जब  शब्द  कभी................. 

तूफां  भी  टकराता  रहा  तट  से , बस  सुनने  को 'वो  एक  शब्द ' ,
गरिमा , अस्तित्व  लौट  आते  प्रकृती  के कण में  आत्मसात  कर  'वो  एक  शब्द ';
लालची  मायाजाल  के  भयंकर  भँवर   में , डगमगाता  है  ईमानदार  के  भी  ईमान ,
वो  हृदय  बन  जाती  है  कठोर  जग  में  फिर  जो  आत्मसात  कर  ले  'वो  एक  शब्द ';
लिखते  हैं   जब  शब्द  कभी.................. … .... 

Saturday 3 January 2015

ख़ामोशी की जुबां को ........

ख़ामोशी  की   जुबां   को  .......... 

                              -अभिलाष कुमार  पासवान 


ये   इंतज़ार   एक  अरमां   के  कुछ   ऐसे   हैं , बस   दिल  समझ  सकता  है ,
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है ;
होती  है  कुछ  मुरीद  ऐसी  जहाँ  में  जो  बस  पागलपन  कही  जाती  है ,
पागल  न  हुआ  जो  इश्क़  में , वो  उड़ते  पंछी  की  जुबां   कैसे  समझ सकता है ;

कुछ  लम्हें   चुराया  वो  खुदा  से , बस  फ़ना  तुझपे  करने  के  लिए ,
वैसे  जैसे  एक बूँद   बादल की  तरसते हैं  मरुधरा  से  मिलने  के  लिए ;
समझे  न  ये  दर्द  कोई  उन  दो  छोड़  का , जो एक  हो  सकता  है ,
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है ;

वादोँ   का  एक  साज़  सजा  लिया , ये  भूलकर  कि  कल  भी  होता  है ,
इश्क़  के  आसमां  में  उड़े  जो  दिल  तो  नुमाइशें   भी  खुद्दार  भरा  होता है ;
कौन  जाने  क्या  होगा  कल , जग  भी  आज  खामोश   है  बड़ा , पर ,
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है ;

निगाहें  करती  है  हमेशा  परेशान  , बस  एक  दीदार  के  लिए ,
खुदा  ने  दिया  दिल  मुझे  जरूर  मगर  पर  बनाया  है  उसके  लिए ;
और  अब  ये  दिल  और  खुदा  की  जुबां  कौन  समझ  सकता , क्योँकि ,
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है ;

दुनिया  हो  जाती  है  बड़ी  सरल , जब  उनके  नज़रोँ  का साथ  होता  है ,
परेशानी  तो  बस  अनजानी   चिड़ियाँ  है , गुमनामी  मैं भी एक एहसास  साथ होता है ;
कहते  हैं  एक  राह  है  इश्क़ , मंजिल  है  इश्क़ ,और  बेज़ुबां  है  ये  इश्क़ , पर ,
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है ;

ये  जालिम  दुनिया  में  जो  बन जाए  रिश्ता  दिलोँ  का , वो  अपना  हो  सकता  है ,
खुदा  की  नुमाइंदगी -ए -इश्क़  में  ताकत  ऐसी  जो गैरोँ   को  अपना  बना  सकता है ;
कहते  हैं  इश्क़  कमीनी  चीज़  है  जो  ख़ुदग़र्ज़  बना  जाता  है , पर ये  सच है  ,कि ,
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है ;

बस  दिखाता  रास्ता  खामोश  रहकर  वो खुदा  , क्योँकि  वो  भी जनता  है , कि 
ख़ामोशी  की   जुबां   को  बस  इश्क़  में  उड़ते   दो  पंछी  समझ  सकता  है    . ....