ख़ामोशी की जुबां को ..........
-अभिलाष कुमार पासवान
ये इंतज़ार एक अरमां के कुछ ऐसे हैं , बस दिल समझ सकता है ,
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है ;
होती है कुछ मुरीद ऐसी जहाँ में जो बस पागलपन कही जाती है ,
पागल न हुआ जो इश्क़ में , वो उड़ते पंछी की जुबां कैसे समझ सकता है ;
कुछ लम्हें चुराया वो खुदा से , बस फ़ना तुझपे करने के लिए ,
वैसे जैसे एक बूँद बादल की तरसते हैं मरुधरा से मिलने के लिए ;
समझे न ये दर्द कोई उन दो छोड़ का , जो एक हो सकता है ,
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है ;
वादोँ का एक साज़ सजा लिया , ये भूलकर कि कल भी होता है ,
इश्क़ के आसमां में उड़े जो दिल तो नुमाइशें भी खुद्दार भरा होता है ;
कौन जाने क्या होगा कल , जग भी आज खामोश है बड़ा , पर ,
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है ;
निगाहें करती है हमेशा परेशान , बस एक दीदार के लिए ,
खुदा ने दिया दिल मुझे जरूर मगर पर बनाया है उसके लिए ;
और अब ये दिल और खुदा की जुबां कौन समझ सकता , क्योँकि ,
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है ;
दुनिया हो जाती है बड़ी सरल , जब उनके नज़रोँ का साथ होता है ,
परेशानी तो बस अनजानी चिड़ियाँ है , गुमनामी मैं भी एक एहसास साथ होता है ;
कहते हैं एक राह है इश्क़ , मंजिल है इश्क़ ,और बेज़ुबां है ये इश्क़ , पर ,
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है ;
ये जालिम दुनिया में जो बन जाए रिश्ता दिलोँ का , वो अपना हो सकता है ,
खुदा की नुमाइंदगी -ए -इश्क़ में ताकत ऐसी जो गैरोँ को अपना बना सकता है ;
कहते हैं इश्क़ कमीनी चीज़ है जो ख़ुदग़र्ज़ बना जाता है , पर ये सच है ,कि ,
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है ;
बस दिखाता रास्ता खामोश रहकर वो खुदा , क्योँकि वो भी जनता है , कि
ख़ामोशी की जुबां को बस इश्क़ में उड़ते दो पंछी समझ सकता है . ....