"मुझसे प्रगति का मतलब न पूछो "
-अभिलाष कुमार पासवान
अधरो में लटका खुद को , बैठा रहता जो कुछ ढूँढने को ;कभी तन्हाईयाँ बुलाती , कभी वीरानियाँ पुकारती , कभी हवा के झोँके छेड़ती ;
मनमैली सोच के द्रव्य से घिरा , जब पुचकारता कोई मन को ;
अशांत मन तनिक शांति चाहता, पर वज़ह हर बार है इसे यहाँ छेड़ती ;
कभी पूछते दिल से , कभी सुनते दिमाग की , जब ठिठक सा जाता ;
जब कोई अपना ना कोई पराया होता ;
भँवर के उस जाल में फँसते , जो उस अलौकिक द्वार की तरफ जाता ;
शांत चित्त सहित न कोई मोह न कोई माया होता ;
ढूँढ़ते खुद का अस्तित्व जग में , ढूँढ़ते उन असंख्य सवालोँ के उत्तर को ;
जब खुद के वजूद का मतलब जानने को होता , फिर लब्जें खुद को छेड़ती ;
उत्तर , उत्तम उत्तर , अति उत्तम उत्तर, जब इन शब्दोँ से पड़े पाता खुद को ;
पथ प्रदर्शक बन खुद का जब खुद संग आगे बढ़ता , फिर मेरी ही सोच छेड़ती ;
पूछ बैठता दिमाग जब भी मेरी प्रगति का मतलब,
दिल चुपके से बस यही कहता --------
"मुझसे प्रगति का मतलब न पूछो "!!!
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