Wednesday 22 March 2017

सफर

बस चलते-चलते यूँ ही पीछे मुड़कर देखा तो
सफर की सड़क तो लंबी थी,
कभी समतल थी , कभी खुदगर्ज थी ,
भीड़ का कद भी ऊँचा था और तन्हाई भी बड़ी थी ,
मगर फिर भी हम अकेले थे ,
मेरा अस्तित्व अकेला था ,
मेरी परछाईं अकेली थी,
मेरे जज्बात अकेले थे ,
मेरा अकेलापन भी अकेला था ,
सब कुछ सहज भी था और सत्य भी
ढूँढा जब अपनों को, सब पराये निकले
मानो जिंदगी ने अपनी सार्थकता बताई हो
और सफर का प्रकृति अपना सामर्थ्य ,
बस खुद को खोते-खोते मानो खुद को पा लिया था
और ये प्रकृति एक सच सी साथ थी  !