एक सवाल जिंदगी की -
-पासवान की कलम से
जिंदगी पूछती है -
कभी अधिकार से तो कभी दुतकार से
आखिर हक किसने दिया मुझे उसे कुर्बान करने का
कभी मोहब्बत पे तो कभी किसी फर्ज पे
और खुद को ना जी पाने का अफसोस संग है
जिंदगी पूछती है -
बड़ी ही विनम्रता से एक उत्तर की आस में
आखिर उसका गुनाह क्या था जो उसका वर्तमान छिन गया
कभी अतीत का साया ना छूटा तो कभी भविष्य की चिंता
और कश्मकश में ना जाने कितने पल ख्वाब बनकर ही रह गए
जिंदगी पूछती है -
इक धिक्कार भरी समाज से अपने अस्तित्व के बारे में
जो जन्म लेते ही जाती-धर्म-नीति के बंधन से बाँध दिया गया
और जीवन का मूल्य छोड़कर सब कुछ पढ़ा दिया गया उसे
जो उसने चुना नहीं, उसकी ही पीड़ा से आहत है आज
और हर सवाल पे उसे बस एक मुस्कुराहट मिली -
जो सुकून है दर्द में और एक लौ है घोर अँधेरे में
और ये जानकर खामोश है कि -
अनुभूति करते उसे उस पल अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता
और बस यही द्वन्द मन का मन से निरंतर चल रहा
और हम भी निरंतर चल रहे !