Sunday 27 August 2017

द्वंद नजर की

नजर पूछती हो जैसे
कोई कमोबेस होकर गया हो
कुछ कहती हो कुछ समझती हो जैसे
कोई अनजाना, अजनबी घर होकर गया हो

सरीखों से सीख ना जाने कितना सीखा
हँसना सीखा , रोना सीखा , ना जाने क्या क्या सीखा
ज़माने का द्वंद और ज़माने की तौहीन
हो ख्वाब जैसे नजरबंद कहीं
आसमां की गिरती बिजली से पूछा हो मानो जैसे
बनना सीखा , गिरना सीखा,  और ना जाने क्या क्या सीखा 

नजर पूछती हो जैसे
मैंने ना जाने क्या क्या है सीखा !