कहाँ पहुँचा मैं ?
-अभिलाष कुमार पासवान
जोड़ता हूँ कभी तजुर्बों को -देखने कि कहाँ पहुँचा मैं ;
दौड़ता , भागता , फिर वहीँ पहुँचता हूँ
जहाँ से मैंने शुरुआत किया था -
नापने कि कितनी दूर पहुँचा मैं ;
लौटते उस बिंदु तक ना जाने कितनी यादें ताज़ा होती है ,
पर लौटती ज़िंदगी में बस इन सबका एक दीदार होता है ,
चाहता हूँ रुक थोड़ा सुस्ताना , थोड़ी उनसे बातें करना -
पर समय अब भला कहाँ इज़ाज़त देती है ;
एक पल तो ऐसा होता है कि दोनों कल सामने होते हैं ,
एक वो जो कल अपने थे , एक वो जिसे मैंने देखा नहीं है ,
बीच मँझधार में फँसा मैं सोचता रहता हूँ करूँ क्या -
बस यहीं कुछ पल के लिए ज़िंदगी स्थिर होता है ;
इस स्थिरता में देखता हूँ मुड़कर -
अपनों से कितना दूर हूँ मैं ;
बस जानने , बस इतना सा -
कि खुद से कितना दूर हूँ मैं ,
जोड़ता हूँ कभी तजुर्बों को -
बस देखने कि कहाँ पहुँचा मैं ;
कहाँ पहुँचा मैं ?
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