Friday 26 January 2018

ना जाने चाहकर तुम्हें , क्या से क्या हो गए हम !

बस बेरुखी से तेरे , अजनबी हो गए हम 
ना जाने चाहकर  तुम्हें , क्या से क्या हो गए हम !

कभी याद , कभी फिक्र होती है तेरी 
हँसता तो हूँ , पर मायूसी हो जैसे तेरी 
देख कर किसी को , वो ख्वाब याद आते हैं 
जो थे तो मेरे मगर , अमानत है तेरी 
तुम्हारी खुशी चाहकर , ना जाने कहाँ आ गए हम 
ना जाने चाहकर  तुम्हें , क्या से क्या हो गए हम !

जिरह का सिलसिला चलता है वक़्त का 
मुलाजिम बनाकर मुझे , वास्ता देता है इश्क का 
मैं तो सह भी लूँ , मगर दिल क्या करे 
तथ्य के सामने , सजा पाता है चाहने का 
दिल से हारकर , कितना गुमनाम हो गए हम 
ना जाने चाहकर  तुम्हें , क्या से क्या हो गए हम !

मुसलसल हैं साँसे मगर फिर भी डर है 
खुद के होने का , खुद को खोने का डर है 
व्यर्थ है सब मगर दिल और दिमाग को कौन समझाए 
इश्क तो है नहीं मगर फिर भी उसके खोने का डर है 
एक तुम्हें पाने को , कहाँ से कहाँ आ गए हम 
ना जाने चाहकर  तुम्हें , क्या से क्या हो गए हम !

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