बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें…………
- अभिलाष कुमार पासवान
बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें , चाहत रुसवा कर गयी ;
एक प्यासे को ओस की बूँदो सा छीटां दे , प्यास फ़िर बढ़ा गयी ;किससे करूँ वो दर्द बयां , जिसे आज सह रहा हूँ यहाँ पर ;
जिसे चाहिए था दर्द पर मरहम, जमाना फ़िर एक चोट दे गयी ;
बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें ,चाहत चुभन दे गयी ;
दिखे न बाहर से अंदर का हाल ,एक अंदरुनी चोट दे गयी ;
कहते हैं कुछ लोग, प्यार का दूसरा नाम तो दर्द ही है ;
प्यार मैंने किया या नहीं , पता नहीं , पर एक अफ़सोस दे गयी ;
बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें , आँखोँ का नूर तुम बन गयी ;
बस तेरे चेहरे को देखना चाहता था, मेरी दुनिया तुम बन गयी ;
किस-किस को बताऊँ, कि पत्थर को काँच बनाने की कला तुम्हें पता है ;
भागता रहा मैं प्यार के नाम से, पर मेरी आशिक़ी तुम बन गयी ;
बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें , शायराना अंदाज़ सौगात में मिल गयी ;
तुझे सोचा जब भी कहीं, तुम शब्दोँ के एक मायाजाल में मिल गयी ;
शायरी तो शब्दोँ की बस पंक्ति है, शब्दोँ की जननी तो तुम हो ;
चाहिए था एक शायरी नई , शब्द ढूँढ़ते हुए तुम खुद मिल गयी ;
बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें , एक अरमां शायद वो जगा गयी ;
जो कभी ना हो सकते पूरे , वैसे ख्वाब बार-बार देखने की आदत दे गयी ;
कहते सुना है , वो ख्वाब ही नहीं जिसे पूरा ना किया जा सके ;
हैरान हूँ मैं भी आज , शायद वही ख्वाब जीने की वज़ह दे गयी ;
बड़ी ही शिद्दत से चाहा था तुम्हें , चाहत जीना सीखा गयी ;
ये चाहत थी एक ऐसी , काम शिद्दत के साथ करना सीखा गयी।
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