हूँ अधूरा बिन इस प्रकृति का .......
-अभिलाष कुमार पासवान
है गोद बड़ा ही पावन इस प्रकृति का
ढूँढ ले इलाज़ तुरंत यह हमारे हर मनोवृत्ति का
मस्ती की चाह में घूमते , भटकते राह में , सुख़ की पहचान कहाँ
है हमारी संपूर्णता अधूरी बिन इस प्रकृति का
आँख खुली जग में जब , पाया साथ इस प्रकृति का
जन्मदायी माँ दर्द में भी हँस पड़ी देख प्यार इस कृति का
हर स्पर्श में, हर पल जो साथ रहा, है उसका आज पहचान कहाँ
मातृ दुग्ध रक्त बन सींचता कैसे बिन इस प्रकृति का
पाया अकेले जब भी खुद को, साथ मिला इस प्रकृति का
तन्हाई का दर्द बाँटा , एहसास पाया एक नई प्रीति का
दोस्त-दुश्मन में उलझ कर रह जाती इस ज़िन्दगी कि पहचान कहाँ
हर मर्ज़ का दवा आज बने कैसे बिन इस प्रकृति का
छूट गए जग में सब , जो ना छूटा साथ इस प्रकृति का
शांति हो या ध्यान ,न है संभव कभी बिन इसके कीर्ति का
हर पल ,हर रूप में ,हर भोग -विलास के साक्षी का पहचान कहाँ
ज़िन्दगी के अवशेष का निर्वाह हो कैसे बिन इस प्रकृति का
सोच कि उपज़ संभव कैसे , बिना खेत बने इस प्रकृति का
जीर्णोद्धार हो मन का जब भी , है यह कहानी एक आपबीती का
भटकते मंज़िल की तालाश मैं, चकाचोन्ध रौशनी मैं,राह की बची पहचान कहाँ
जोगी बिन जोगण अधूरा , हूँ अधूरा मैं बिन इस प्रकृति का
न हो कोई उन्माद नया, न कभी हो कुछ पूरा, जो न मिले साथ प्रकृति का
पूछे प्रकृति - अरे ओ सहचर , जग में तेरी पहचान कैसे बिन इस प्रकृति का।
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